Monday, 18 September 2017

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी के  चंद दिनों में ,
कुछ ऐसा मैनें पाया,
संकटों के विघ्न क्षणों में,
कुछ अपनों से धोखा खाया,

स्वार्थ भरी इस दुनिया में,
ज्ञान को अपना मित्र पाया,
       मन के सवालों,
जवाब समाज से विचित्र आया,

जवाब मेरे मन का,
उलझन रूपी चित्र में आया
फिर ज़िन्दगी का,
खुद से अधिक लगाव पाया,

वो भी अजीब मंजर था,
जिसमें खुद को अकेला पाया,
ज़िन्दगी में अजीब सन्नाटा था,
जिसमें दुःख के अलावा कुछ न पाया,
      ( आख़िर की चार पंक्तिया कुछ इस तरह हैं)

दुःख के इस समंदर में नाव की कमी है,
दुःख बांटने को कोई भी नाविक सही है,
सुख तो उनकी जागीर होती है,
जो दुःख जितने में माहिर होते हैं।
                            (साल 2012 मेरे कालेज वाले दिन)
         

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