Thursday, 26 October 2017

सफर ए ज़िन्दगी

क्या सफर ये ज़िन्दगी का,
चल पड़े थम जाने का,
उन अधूरे रास्तों पे,
फिर वहीं दौड़ जाने का,

चन्द फ़िज़ाओं की रोशनी में,
गुलशन को महकाने का,
दबी फ़ितरतों के मुखौटों में,
रुपहले हक़ीक़त दिखलाने का,

था जिया जिन लम्हों को,
वापिस उनमें डूब जाने का,
बीते जमाने और बचपने को,
हद से ज्यादा चाहने का,

उन गली उन रास्तों पे,
रुक वही इतराने का,
देख उनको उस गली पे,
रोज वहीं ग़ुम जाने का,

उन झुकी और शांत पलकों पे,
एक उम्दा मुस्कुराहट लाने का,
देखकर उसको नित दिन,
काश कुछ कह जाने का,

अल्फ़ाज़ मुँह से हो बयां ना,
हालत ये हो जाने का,
बैचेनी भरी उन रातों का,
करवटों में सुबह हो जाने का,

गए किसी दिन कह गुजरने,
हुई हिम्मत उधार मांग के,
हो सकी ना वो कभी भी,
सुन हमारी बचकानी बातें,

सच कहा है ये किसी ने,
इश्क़ होना यकीनन झलावा है,
थी जवानी हद मासूम,
इससे निपटने में भी कहा सुकून,

जब लगी ज़हर जिंदगी,
फिर हुआ वो कमबख्त,
जिसे कहते है लोग इश्क़,
मैने भी उठाए थे रिश्क,

गुजरा वक्त ,था यही सामने,
कौन किसका हो सकेगा,
इस घड़ी इस राह में,
इन जरूरी हाथों को थामने,

उन लकीरों की तारीफें,
जो ऊपर से आयीं थी,
खूब सुनी थी कितनी दफे,
क्या खूब किस्मत जो,
उन लकीरों पर आयी थी,

दिन बना दे ऐसी जुल्फें,
अब कही जा चैन आयी थी,
हंसो चाहे रो ये ज़िन्दगी है,
पल में गुजर जानी थी,

हो ही किसका सकता है ये,
जो किसी के लिए ना रुके,
सब शून्य हो जाएंगे,
यादें ही रह जाएंगे,

नहीं है कहीं जीने का गुर,
ना किताबों ना किसी चीजों में,
फिर भी जिये जाना तो होगा जरूर,
ख्याल यादें लम्हें जिनमें हो मंजूर,










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