यहां होकर बस यूं कह दिया,
मानो के बात अभी हुई ही नहीं,
के थी वो मयस्सर उस ठहरे ज़माने में,
कुछ मुंतज़िर या ख़्वाबीदा था वो पल,
कहीं न कहीं वाबस्ता तो थी वो मुझसे,
मुसलसल वक्त भी अजीब था,
फ़ितरतों के मायने ढूंढ रहा था,
हर्फ़ हर्फ़ अल्फ़ाज़ों का लहज़ा बदल डाला,
शायद ये रिवायतें ही पासबाँ बन बैठी उसकी,
एक मौतज्ज़ा जिस नज़ाकत कुर्बत नसीब हुई,
उस आफ़रीन चेहरे का नूर आफताब सा चमका,
इनायत या नवाज़िश कहें मेरे उन्स की ताबीर हुई,
बा दस्तूर ये जूस्तज़ू मुख़्तलिफ़ तो नहीं,
सहर की धूप उस बिन सिफर थी,
ये मरासिम या यूं कहें शबनमी पैमाने,
जिसमें हयात और शबाब दोनों मौज़ूद थे,
खालिस फितूर ऐसी की फना भी हुआ तो किसमें,
उस क़ायनात में जहां जुस्तजू पीछे छूट आयी थीं,
है तुझमे भी वही जो मुझमें है,
बस मुख़्तलिफ़ तो हमारे ज़ज़्बात हैं,
तू जानती है के कितना अकेला हूँ तुझ बिन,
और तू थी कि खौफ ज़दा माहौल झेल न पाई,
मुख़्तलिफ़ ख्यालों से मुस्तक़बिल के शामियाने,
गुलों बहार और तुझ संग रह जाने की बात,
आज भी याद हैं वो पुराने ज़ज़्बात,
वो भी क्या गिनती के दिन थे जिसमें हम साथ थे,
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