Tuesday, 7 November 2017

अप्रतिम


तृप्त दिशाओं की शांत पलकें,
क्या कहा आज जानें चलके,
मस्त वेग और तीव्र चाल में,
चमत्कारी उन हवा में,
महक थोड़ी घुल रखी थी,

कली-कली  गुलशन -गुलशन,
हर कहीं फूल रखी थी,
बदरंग बेस्वाद उन लम्हों में,
एक तुम ही तो थी सुगन्धित,

मन कैसे न हो लालायित,
ये हो क्या रहा था,
कुछ अनजान था मैं,
बेखौफ खुशबू में मेहमान था मैं,

अनोखी और अनन्त इक्षाऐं,
बिखरी जैसे मेघ हो आएं,
उस धरा पर वे इक्षाएँ,
टपकी जैसे पूर्ण हो जाएं,

युगों-युगों की त्वरित ज्वाला,
भड़की जैसे बिजली हो कौंधी,
बादल गरजे जैसे हो उत्तावाला,
तीक्ष्ण बारिश जैसे मिट्टी हो सौंधी,









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